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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

बिहनि कथा


ढेपमारा गोसाईं
मोबाईलक अलार्मक घर-घरी सुनि कऽ मिश्राजीक निन्न टूटि गेलैन्हि। ओ मोबाईल दिस तकलाह आ अलार्म बन्न करैत फेर सुतबाक उपक्रम करऽ लागलाह। आ की कनियाँक कडगर आवाज कान मे ढुकलैन्हि- "यौ किया अनठा कऽ पडल छी? साढे पाँच बजै छै। उठू, नै तँ बच्चा सभ केँ इसकूल लेल के तैयार करओतैक। हम नस्ता बनाबै लेल जा रहल छी। भरि दिन तँ अहाँ आफिस मे कुर्सी तोडबे करै छी, कनी घरो पर धेआन दियौ।" मिश्राजी बिना कोनो विरोध केने पोस माननिहार माल जाल जकाँ चुपचाप बिछाओन सँ उतरि बाथरूम मे ढुकि गेलाह। निवृत भेलाक बाद बच्चा सब केँ उठाबऽ लगलाह। बच्चा सब हुनकर कुशल नेतृत्व मे इसकूल जयबा लेल तैयार हुए लागल। एकाएक बडका बेटा राजू बाजल- "पापा अहाँ हमर कापी आनलहुँ?" मिश्राजी- "नै, बिसरि गेलहुँ। काल्हि आफिस मे बड्ड काज छल।" राजू बाजल- "अहाँ तीन दिन सँ बिसरि रहल छी। रोज आफिसक काजक लाथे हमर कापी नै आबि रहल अछि। अहाँ केँ हमर काज मोन नै रहैए।" ओम्हर सँ कनियाँक स्वर भनसाघर सँ बहराएल- "इ तँ हिनकर पुरान आ पेटेण्ट बहाना अछि। घरक कोनो काज मे हिनकर कोनो अभिरूचि नै छैन्हि। आइ हम अपने तोहर कापी आनि देबह।" कहुना बच्चा सब केँ तैयार करा मिश्राजी बस-स्टाप धरि बच्चा सब केँ छोडि डेरा अएलाह तँ कनियाँ एकटा नमहर लिस्ट हाथ मे थमा देलखिन्ह। सब्जी, आटा, दूध आ आन वस्तु सबहक लिस्ट। मिश्राजी बजलाह- "कनी दम धरऽ दियऽ। हम बडद जकाँ भरि दिन लागल रहै छी, तइयो अहाँ सब केँ हमरे सँ सिकाईत रहैए।" कनियाँ कहलखिन्ह- "बियाहि कऽ अहाँ आनलहुँ आ सिकाईत करै लए भाडा पर लोक ताकी हम?" बेचारे मिश्राजी चुपचाप बाजार दिस ससरि गेलाह। बाट मे बाबूजीक फोन मोबाईल पर एलेन्हि- "हौ, मकानक देबाल नोनिया गेलैक। रंग करबाबै लए पाई कहिया पठेबहक?" मिश्राजी बिहुँसैत बजलाह- "अगिला मास पाई पठा सकब।" पिताजी खिसियाईत कहलखिन्ह- "कतेको मास सँ तौं अगिला मासक गप कहै छह। इ अगिला मास कहियो आओत की नै।" मिश्राजी केँ अपन गामक सीमान परहक ढेपमारा गोसाईं मोन पडि गेलैन्हि, जकरा पर सब कियो आबैत जाईत एकटा ढेपा फेंकि दैत छलै। हुनका बुझाइ लगलैन्हि जे ओ ढेपमारा गोसाईं भऽ चुकल छथि।
दस बजे मिश्राजी आफिस पहुँचलाह। कनी काल मे आफिसर अपना कक्ष मे बजा कऽ पूछलखिन्ह- "काल्हि एकटा अर्जेण्ट फाईल नोटिंग लए देने छलहुँ आ अहाँ बिना काज केने भागि गेलहुँ।" मिश्राजी- "सर, बिसरि गेलियै। एखन कऽ दैत छी।" आफिसर- "नित यैह बहाना रहैए। किछो यादि रहैए अहाँ केँ?" मिश्राजी सोचऽ लागलाह- "इहो नै छोडलक। कुर्सी पर बैसल अछि तँ हुकूमत देखबैए।" आफिसर हुनका चुप देखि कहलैथ- "की कोनो नब बहाना सोचै छी की? जाउ काज कऽ कऽ दियऽ।" मिश्राजी- "सर, कहलौं ने बिसरि गेल रही। तुरत कऽ दैत छी।" आफिसर- "अच्छा, रोज तँ यैह बहाना रहैए। किछो मोन रहैए की नै? अपन नाम तँ मोन हैत ने। की नाम अछि अहाँक श्रीमान विनय मिश्राजी।" मिश्राजीक मूँह सँ हरसट्ठे निकलल- "ढेपमारा गोसाईं।"

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