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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

पंडा आ दलाल (हास्य कविता)

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 पंडा आ दलाल
(हास्य कविता)

एकटा गप साफे बुझहू त
ई दुनू ममिऔते पिसिऔते छि
एकटा अछि जं पंडा
त दोसर अछि दलाल.

साहित्यों आब एकरा दुनू सँ
अछूत नहि रहि गेल
पंडा बैसल अछि पटना में
त दिल्ली में बैसल अछि दलाल.

सभटा साहितिय्क आयोजन में
रहबे करत एककर सझिया-साझ
हँ ओ में छि नहियों में छि
सभटा लकरपेंच लगाबै तिकडमबाज.

की दरभंगा आ की कलकत्ता?
सभ ठाम बैसल अछि तिकडमबाज
अपना-अपना ओझरी में ओझरौत
आ सुढ़िये नहि देत कोनो काज.

पहिने ई काज हमही शुरू केलौहं
बड़-बड़ बाजै भाषाई पंडा
धू जी एककर श्रेय त हमरा
ताहि दुआरे अपस्यांत भेल दलाल.

खेमेबाजी आ गुटबाजी केलक
सत्य बजनिहार के धमकी देलक
अपना स्वार्थ दुआरे ई सभ
भाषा साहित्यक सर्वनाश करेलक.

अपने मने बड्ड नीक लगइए
मुदा आई "कारीगर" किछु बाजत
कहू औ पंडा आ दलाल
एहेन साहित्य समाज लेल कोन काजक?

साहित्य समाज जाए भांड में
एकटा दुनू के कोन काज
साहित्यक ठेकेदारी शुरू केलक
ई दुनूटा भ गेल मालामाल.

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